भारत में ऐसे कई पर्व और उत्सव हैं जो केवल धर्म का ही नहीं, बल्कि आस्था, श्रद्धा और सनातन संस्कृति का जीवंत प्रतीक बन चुके हैं। इन्हीं में से एक है – जगन्नाथ रथ यात्रा। यह यात्रा न केवल ओडिशा राज्य के पुरी नगर की पहचान है, बल्कि संपूर्ण विश्व में हिंदू आस्था का अद्वितीय पर्व मानी जाती है।
हर वर्ष आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान श्रीजगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा जी के साथ नगर भ्रमण (रथ यात्रा) पर निकलते हैं। इस अवसर पर लाखों श्रद्धालु पुरी पहुँचते हैं और भगवान के रथ को खींचने का पुण्य प्राप्त करते हैं।

🔷 मूल कथा – कैसे हुई रथ यात्रा की शुरुआत?
जगन्नाथ रथ यात्रा की पौराणिक कथा अत्यंत रोचक और दिव्य है। इस कथा की कई रूपांतर हैं, लेकिन मुख्य रूप से इसकी जड़ें स्कंद पुराण और पद्म पुराण में मिलती हैं।
🔸 राजा इंद्रद्युम्न की तपस्या
पुरातन काल में मलवा प्रदेश (वर्तमान मध्यप्रदेश) में एक पुण्यात्मा राजा इंद्रद्युम्न राज करते थे। वे श्रीहरि विष्णु के परम भक्त थे और जीवन में केवल एक ही उद्देश्य था – भगवान के साक्षात दर्शन करना। एक दिन उन्हें यह समाचार मिला कि नीलांचल (आज का पुरी) क्षेत्र में एक दिव्य दारु (लकड़ी) से बनी भगवान विष्णु की मूर्ति स्वयं प्रकट हुई है, जिसे नीलमाधव कहा जाता है।
राजा ने उस मूर्ति के दर्शन करने का निश्चय किया, लेकिन जब वे वहाँ पहुँचे, तब तक मूर्ति अंतर्धान हो चुकी थी। इस divine संकेत को राजा ने भगवान की परीक्षा माना और उन्होंने संकल्प लिया कि वे नीलमाधव के स्थान पर एक भव्य मंदिर बनाएँगे और वहाँ स्वयं भगवान की मूर्ति स्थापित करेंगे।
🔸 भगवान विश्वकर्मा और अधूरी मूर्ति
राजा इंद्रद्युम्न ने कठोर तपस्या की। तब स्वयं भगवान विष्णु ने स्वप्न में दर्शन देकर उन्हें बताया कि समुद्र में एक दिव्य दारु (लकड़ी) तैरेगी, जिससे भगवान की मूर्ति बनेगी। कुछ समय बाद वही लकड़ी समुद्र तट पर मिली।
अब प्रश्न था कि मूर्ति कौन बनाएगा। तभी एक वृद्ध ब्राह्मण रूप में भगवान विश्वकर्मा प्रकट हुए और उन्होंने शर्त रखी कि वे 21 दिनों तक बंद कमरे में मूर्ति बनाएँगे, परंतु कोई व्यक्ति उस कक्ष का द्वार नहीं खोलेगा।
राजा ने स्वीकार किया, लेकिन जब कई दिन बीत जाने पर कोई आवाज़ नहीं आई, तो रानी की चिंता बढ़ी और उन्होंने द्वार खुलवा दिया। जैसे ही दरवाजा खुला, विश्वकर्मा अंतर्धान हो गए और भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की अधूरी मूर्तियाँ वहीं रह गईं – बिना हाथ-पैर के।
तब आकाशवाणी हुई कि यही स्वरूप कलियुग के लोगों के लिए उपयुक्त है – “भक्ति की पूर्णता बाहरी रूप से नहीं, ह्रदय की शुद्धता से होती है।”
🔷 रथ यात्रा का प्रारंभ – क्यों निकाले जाते हैं भगवान?
पुरी में जगन्नाथ जी अपने भाई-बहन के साथ मंदिर में विराजमान रहते हैं। परंतु वर्ष में एक बार, आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को तीनों भगवान रथ में सवार होकर गुंडिचा मंदिर (माँ यशोदा का घर) जाते हैं, जहाँ वे 8 दिन तक विश्राम करते हैं। नौवें दिन “बहुदा यात्रा“ के माध्यम से वे पुनः मुख्य मंदिर लौटते हैं।
यह यात्रा प्रतीक है:
- ईश्वर के लोक से पृथ्वी पर आगमन का
- समभाव और सर्वसमावेशी धर्म का
- यह भी मान्यता है कि भगवान स्वयं भक्तों के बीच आते हैं
🔷 पौराणिक महत्व और आध्यात्मिक संकेत
जगन्नाथ रथ यात्रा केवल धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि इसमें गहरे दार्शनिक और आध्यात्मिक संकेत छिपे हैं:
🌟 क्यों है यह यात्रा इतनी महत्वपूर्ण?
- भक्ति और समर्पण की पराकाष्ठा:
रथ खींचते समय भक्तों का हर्ष, उत्साह और श्रद्धा भगवान से उनके जुड़ाव को दर्शाता है। - सभी के लिए ईश्वर एक समान:
इस उत्सव में जाति, धर्म, लिंग, वर्ग – कोई भेद नहीं होता। हर कोई भगवान के रथ को छू सकता है, खींच सकता है – यह सनातन धर्म की सार्वभौमिकता है। - मूर्ति की सरलता, भाव की गहराई:
अधूरी मूर्ति यह बताती है कि ईश्वर बाह्य रूप से नहीं, भाव और भक्ति से प्रसन्न होते हैं। - आध्यात्मिक यात्रा का प्रतीक:
यह रथ यात्रा जीव की आत्मा से परमात्मा तक की यात्रा का प्रतीक भी मानी जाती है। - पुरी का रहस्य:
जगन्नाथ मंदिर के ऊपर से न तो कोई पक्षी उड़ता है, न ही मंदिर की छाया धरती पर गिरती है। यह दर्शाता है कि ईश्वर और उनकी लीला रहस्यमयी है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
जगन्नाथ रथ यात्रा केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि यह सनातन संस्कृति का ऐसा दैवीय उत्सव है, जिसमें भगवान स्वयं भक्तों के बीच आते हैं। यह यात्रा हमें सिखाती है कि भक्ति, श्रद्धा और समर्पण के आगे कोई रूप, जाति या व्यवस्था नहीं टिकती।
पुरी की रथ यात्रा वह अवसर है, जहाँ आस्था रथ बन जाती है, और भक्ति उसका पहिया।